पनवाड़ी महोबा कृपासिंधु सनमानि सुबानी। बैठाए समीप गही पानी।
भरत विनय सुनिदेखी सुभाऊ। शिथिल स्नेह सभा रघुराऊ।
कृपासिंधु भगवान राम ने सुंदर वाणी से भरत जी का सम्मान करते हुए अपने पास बैठा लिया। भरत जी की विनती सुनकर और उनका स्वभाव देखकर सारी सभा और रघुनाथ जी स्नेह से शिथिल हो गए। राजा जनक, गुरु वशिष्ठ, चारों माता, सुमंत और अवध से चित्रकूट पहुंचे अन्य सम्मानित बंधुओं के सामने भगवान राम ने भरत को सीने से लगाते हुए अयोध्या का राजा बनना स्वीकार कर लिया। चारों ओर भगवान की जय जयकार होने लगी। इसके पश्चात कृपसिंधु भगवान ने नरम शब्दों में भरत से कहा, हे अनुज यदि वन के स्थान पर में अयोध्या लौट गया तो संपूर्ण जगत में पिता के वचनों का क्या मूल्य बचेगा। जगत में रघुकुल की कीर्ति समाप्त हो जाएगी।
राम को लोग सिंहासन का लोभी कहेंगे। हे अनुज बताओ, तुम्हें यह स्वीकार है? श्री भगवान के तर्क सुन भरत समेत सभा में बैठे सभी महान पुरुष चुप हो गए। अंत में भरत ने भगवान की खड़ाऊ सिर पर रखी और अयोध्या लौट पड़े। बड़ी माता मंदिर में चल रही श्री राम कथा के छठवें दिन कथा वाचिका विश्वेश्वरी देवी जी ने राजा दशरथ के स्वर्गारोहण, भरत का अयोध्या आगमन, कैकई से उनका संवाद, चित्रकूट धाम में भगवान राम से मिलाप, सीता हरण और शबरी संवाद का मार्मिक प्रसंग का वर्णन किया।
कथा के दौरान देवी ने निषादराज गुह की चर्चा करते हुए बताया कि कैसे भगवान राम की मित्रता में अज्ञानतावश भरत की भारी सेना से लोहा लेने के लिए तैयार हो गए। हालांकि, जब जब उन्हें भरत के मंतव्य का पता लगा, पश्चाताप हुआ। कथा में राम लक्ष्मण और सीता का पंचवटी में ठहरना, शूर्पणखा द्वारा भगवान् को रिझाना और वन में रहते भगवान द्वारा राक्षसों के संहार को वर्णित किया गया। बताया कि त्रेता के उस काल में भगवान का प्रताप देखिए जिस रावण को तीनों लोकों में टक्कर देने वाला कोई नहीं था, अकेली सीता जी के हरण के लिए साधु का वेश रखना पड़ा।